आठवाँ सूक्त

 

भागवत संकल्प-वैश्व सिद्धिका अधिष्ठाता

 

     [ (अग्निको प्रदीप्त करनेके लिए) प्राचीनतम युगसे किये जा रहे महान् प्रयास और अभीप्साकी निरंतरताको घोषित करता हुआ ऋषि हमारे अन्दर अवस्थित दिव्य संकल्पको स्तुति करता है कि वह हमारा संगी-साथी है, यज्ञका पुरोहित और इस गृहका स्वामी है, वह वैश्व अन्तर्वेगको उसकी संपूर्ण नानाविधताके साथ चरितार्थ करता हैं और उसे ज्ञान और कर्ममें स्फूर्ति देता है एवं उसका नेतृत्व भी करता है । ]

 

त्वामग्न ऋतायव: समीधिरे प्रत्नं प्रत्नास ऊतये सहस्कृत ।

पुरुश्चन्द्रं यजतं विश्वधायसं दमूनसं गृहपतिं वरेण्यम् ।।

 

(अग्ने) हे संकल्परूप अग्नि ! (सहस्कृत) तू जो हमारे अन्दर शक्तिसे निर्मित हुआ है ! (त्वां प्रत्नम्) तुझ पुरातन शक्तिको (प्रत्नास: ॠतायव:) सत्यके पुरातन अन्वेषकोंने (सम् ईधिरे) पूरी तरह प्रदीप्त किया ताकि वे (ऊतये) अपनी सत्तामें संवर्धित हो सकें । तू (यजतम्) यज्ञका देव है, (पुरु-चन्द्रं) अपने आनन्दोंके समूहसे संपन्न है और इसीलिए (विश्वधायसं) सबको धारण करता है1 । वह तू (दमूनसं) हमारे अन्दर स्थिर वास करता है, (गृहपति) हमारे गृहका स्वामी हैं, (वरेंण्यं) हमारा परम वरणीय संगी है ।

 

त्वामग्ने अतिथिं पूव्यॅ विश: शोचिष्केशं गृहपतिं नि षेदिरे ।

बृहत्केतुं पुरुरूपं धनस्पृतं सुशर्माणं स्ववसं जरद्धिषम् ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! तू (पूर्व्यम् अतिथिम्) सर्वोच्च2 अतिथि है, (शोचिष्केशम्) प्रकाशकी जटासे युक्त है और (गृहपतिम्) घरका स्वामी हैं । (त्वाम्) तुझमें (विश) प्रजाएँ (नि षेदिरे) अपना आधार पाती हैं,

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1. अथवा सबको पोषित करता है ।

2. पूर्व्यम्--'प्रथम' अर्थात् आदि और सर्वोच्च दोनों ।

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क्योंकि तू (बृहत्केतुम्) विशाल अंतर्दर्शनसे संपन्न है और (पुरुरूपम्) नानाविध रूपोंसे युक्त है, (धनस्पृतम्) हमारे ऐश्वर्योंका सार है, (सुशर्माणम्) पूर्ण शान्ति और (स्ववसम्) पूर्ण सत्ता है तथा (जरद्धिषम्) हमारे शत्रुओं1का विनाशरूप है ।

 

 

त्वामग्ने मानुषीरीळते विशो होत्राविदं विविचिं रत्नधातमम् ।

गुहा सुभग विश्वदर्शतं तुविष्वणसं सुयजं घृतश्रियम् ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! (मानुषी: विश:) मानव प्राणी (त्वाम् ईळते) तेरी वन्दना करते हैं--अपनी स्तुतिसे तुझे खोजते हैं, जो तू (होत्रा-विदम्) यज्ञकी शक्तियों2के ज्ञानसे संपन्न हैं, (विविचिम्) सम्यक्तया विवेक करता हुआ (रत्नधातमम्) हमारे लिए आनंदको पूर्णतया धारण करता है और (गुहा सन्तम्) हमारी सत्ताकी गुहामें विराजमान है । (सुभग) हे पूर्ण आनन्दोपभोक्ता ! तू (विश्वदर्शतम्) विराट् अन्तर्दर्शनसे देखता, (तुवि-स्वनसम्) अपनी अनेकानेक वाणियोंकी वर्षा करता, (सुयजम्) यज्ञको ठीक प्रकारसे करता और (धृतश्रियम्) निर्मलताकी श्रीशोभासे भासित होता हुआ विराजमान है ।

 

त्वामग्ने धर्णसिं विश्वधा वयं गीर्भिर्गृणन्तो नमसोप सेदिम ।

स नो जुषस्व समिधानो अङ्गिइरो देवो मर्तस्य यशसा सुदीतिभि: ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्तिरूप देव (त्वां विश्वधा धर्णसिम्) तू वस्तुओंकी सार्वभौमिकताके विधानको धारण करता है । (वयम्) हम (त्वाम्) तेरे पास (नमसा उप सेदिम) समर्पणरूप नमस्कारके साथ पहुँचते है और तुझे (गीर्भि: गृणन्त:) स्तुतियोंसे प्रकट करते हैं । (अंङगिर:) हे शक्तिशाली द्रष्टा ! (मर्तस्य यशसा) मर्त्यकी विजय3से और (सुदीतिभि:) उसकी यथार्थ दीप्तियोंसे (समिधान:) सुप्रदीपा हुआ (स: देव:) वह उक्त गुणोंवाला देव तू (नः जुषस्व) हमें स्वीकार कर और हमारा दृढ़ संगी बन ।

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 1. मानवीय शत्रु नहीं अपितु विरोधी शक्तियाँ जो हमारी सत्ताकी एकता

   और पूर्णताको भंग करनेका यत्न करती हैं और जिनसे उन ऐश्वर्योंको

   बचाना है जो वस्तुत: हमारे ही हैं ।

 2. अथवा हवि देनेकी प्रक्रिया ।

 3. उपलब्धि या गौरव-गरिमा ।

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त्वमग्ने पुरुरूपो विशेविशे वेयो दधासि प्रत्नथा पुरुष्टुत ।

पुरूण्यन्ना सहसा वि राजसि त्विषिः सा ते तित्विषाणस्य नाधृषे ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्तिरूप अग्ने (पुरुस्तुत:) अनेक प्रकारसे स्तुति किया हुआ तू (विशे-विशे पुरुरूप:) मनुष्य-मनुष्यके अनुसार अनेक रूप ग्रहण करता है और (प्रत्नथा) पुरा कालकी भांति ही प्रत्येकके लिए (वय: दधासि) उसकी विशाल अभिव्यक्तिको स्थापित करता है । तू (सहसा) अपनी शक्तिसे (पुरूणि अन्ना) अनेक पदार्थोंको जो तेरे अन्न हैं (वि राजसि) प्रकाशित करता है । (तित्विषाणस्य) जब तू इस प्रकार प्रदीप्त होता है तब (ते त्विषि:) तेरे प्रकाशकी उस आभाको (न आधृषे) कोई भी दबा नहीं सकता ।

त्वामग्ने समिधानं यविष्ठच देवा दूतं चक्रिरे हव्यवाहनम् ।

उरुज्रयसं घृतयोनिमाहुतं त्वेषं चक्षुर्दधिरे चोदयन्मति ।।

 

(यविष्ठय अग्ने) हे पूर्णयौवन-संपन्न संकल्पाग्ने ! (त्वां) तुझे (देवा:) देवोंने (समिधानं) सुप्रदीप्त किया है और (दूतं चक्रिरे) मनुष्यके लिए अपना दूत बनाया है । (हव्यवाहनं) मनुष्यकी भेंटोंके वाहक, (उरुज्रयसं) अपनी द्रुतगतियोंमें विशाल, (घृतयोनिं) निर्मलतासे उत्पन्न, (आहुतं त्वाम्) हविको प्राप्त करनेवाले तुझ देवको उन्होंने उसके अंदर (त्वेषं चक्षु: दधिरे) एक प्रखर-दीप्त आंखके रूपमें स्थापित किया है जो (चोदयत्-मति) उसकी मन:सत्ताको प्रेरित करती है ।

 

त्वामग्ने प्रदिव आहुतं घृतै: सुम्नायव: सुषमिधा समीधिरे ।

स वावृधान ओषधीभिरुक्षितोऽभि ज्रयांसि पार्थिवा वि तिष्ठसे ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पाग्ने ! (त्वां) तुझे (सुम्नायव:) परम आनन्दके अभिलाषी मनुष्योंने (सु-समिधा समीधिरे) पूरी समिधासे सुप्रदीप्त किया है । (घृतै: प्रदिव: आहुतं) द्युलोक1के अग्रभागमें उनकी निर्मलताओंसे पुष्ट हुआ तू (वावृधान:) इस प्रकार बढ़ता हुआ (पार्थिवा ज्रयांसि अभि) पार्थिव जीवनकी समस्त द्रुतगतिशील प्रगतियोंके अन्दर (वि तिष्ठसे) विशालतासे प्रवेश करता है ।

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1. द्युलोक और पृथिवी अर्थात् विशुद्ध मानसिक सत्ता और अन्नमय चेतना ।

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